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मां / अमलेन्दु अस्थाना
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रात भर आंखों में भींचे रखा ख्वाब,
सुबह पलक खुलते ही उड़ गया,
कल रात सपने में मां आई,
खपरैल वाले उस मकान के बरामदे पर
डसी तरह ओ बाबुल प्यारे गाती हुई सी
जहां अब छह मंजिली इमारत है,
ख्वाब के चांद को देखते हुए मैं बैठा रहा मां के पास,
वह शरद पूर्णिमा के लिए बनाती रही खीर,
गुजर कर भी नहीं गुजरी मां,
लौटती है उस कालखंड से मेरे सपने में,
खींच ले जाती है मुझे उस वृत्त में,
ख्वाब बंद पलकों में हकीकत से लगते हैं,
लौटते हैं अतीत के कालखं डमें,
मिला देते हैं कई अपनों से
जिनसे बिछड़ने का दर्द फना नहीं होता,
अब समरज सिर पर है, भरपूर उजाला है,
पलकें ढूंढ रही हैं ख्वाब,
हथेली अब भी भींची है,
छोड़ना नहीं चाहती मां का पल्लू।।