भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आईने पर बिंदी / अमलेन्दु अस्थाना

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:43, 30 अगस्त 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमलेन्दु अस्थाना |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब जबकि तुम रूठकर जा चुकी हो,
दीवार और आईने पर चिपकी तुम्हारी बिंदियों के पीछे
आकार ले रहा है तुम्हारा चेहरा,
तुम्हे टटोलती दीवारें खामोश हैं,
तुम्हे पा लेने के भ्रम में खिलखलिाती हैं
फिर मौन हो जाती हैं,
रात गहरा रही है, हवाएं लिपट रही हैं पेड़ों से,
इधर तन्हा चादरों पर मेरे सिरहाने का तकिया उदास है
घर में बत्तियां रौशन हैं फिर भी अंधेरा है,
इत्र की बोतलें नाकाफी हैं तुम्हारी खुशबू के आगे
घर खरीद लेने से घर नहीं होता,
तुम धड़कती हो इसकी धमनियों में,
दरवाजे पर जहां तुमने स्वास्तिक बनाया है
बंदनबार के नीचे मैंने चिपका दिया है माफीनामा,
तुम मायके से आओ, भर दो घर खुशियों से।।