इज़हार और एक लोना अबाब / विहाग वैभव
पैरों में पगड़ी बाँध बाप की
भगी दुपहरी रात अन्धेरे में
लोना अबाब
पाने कुसुम कुमार को
मिलने कुसुम कुमार से
जाने बिना अता-पता ही कोई
लोना भागी खेत-खेत
लोना भागी रेत-रेत
वन-वन भागी लोना
मन-मन भागी लोना
भागी पर्वत-पर्वत, घाटी-घाटी
थकी नहीं वह तनिक भी जबकि
तलुओं से छाले फूटे ऐसे
कि नदियों की धारा तेज़ हो गई
पत्थर धँसे पाँव में इतने
कि पश्चिम-पहाड़ के सिर पर
वह थका हुआ बूढ़ा सूरज
लगा उगलने ख़ून
हारिल से पूछा लोना ने कुसुम कुमार का वास
हारिल ने हवा में गिरा दिया पँजे से काठ
पर लोना नहीं हुई उदास
रेती से पूछा लोना ने कुसुम कुमार का वास
रेत के पीठ पर उग आया बरगद विशाल
पर लोना का साहस कम न हुआ
योगी से पूछा लोना ने कुसुम कुमार का वास
योगी के मुँह से लगी टपकने देह
फिर भी लोना थमी नहीं उस छद्म देश
पल भर ठहरी लोना
रुकी, सुना अपने भीतर
पाँच तार से बँधे हृदय का सितार-रुदन
फिर सीधे पूरब में भागी
नीली स्याही से रँगा हुआ वह स्याम पुरुष
सरयू के तट पर व्याकुल खड़ा मिला
लोना अबाब को था कहना कुसुम कुमार से ये सब —
जैसे गौरैया फुदक-फुदक कहती माटी से
जैसे बादल है टपक-टपक कहता धरती से
जैसे पराग है निचुड़-निचुड़ कहता तितली से
हाँ, ठीक, मुझे भी प्रेम है तुमसे, बिल्कुल वैसे ही
उतना ही
अकूत, अनन्त, अथाह, अपरिमित
पर ये क्या !
लोना को कुछ कहना था !
क्या कहना था ?
चुप रहना था ?
सब भूल गई
कुछ याद नहीं
तब लोना ने काट स्वयं की जीभ स्वयं ही
सेमल के दो पत्तों में रख भेंट कर दिया
प्रिय पुरुष कुसुम को
सदियों पीछे
मुक्त हो गई
मौन हो गई ।