भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चंचल / रचना उनियाल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:01, 31 अगस्त 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रचना उनियाल |अनुवादक= |संग्रह=अलं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मीठे-मीठे झकझोरों से, अंतह उठते नाद।
देखें चंचल रीति प्रकृति की, कब होता प्रतिवाद॥

सन नन सर-सर पवन बहकती,
अठखेली कर जाय।
कभी वृक्ष से आँखमिचौली,
गोरी चुनर उड़ाय।
भीनी-भीनी मंद हवायें, बह सरगम दिलशाद।
देखें चंचल रीति प्रकृति की, कब होता प्रतिवाद॥

नर्तन करती झूमें लहरें,
वारिधि के हर अंग।
मचल-मचल कर तट को चूमे,
प्रणय मिलन फिर गंग।
पल में तोला पल में माशा, उर्मि नेह की याद।
देखें चंचल रीति प्रकृति की, कब होता प्रतिवाद॥
मानव हिय के घट में रहता,
आवेगों का कोश।
तापित हो प्रमोद काया तब,
गुम हो जाते होश।
ज्ञान रहे नित संयम का तो, तजता हिय उन्माद।
देखें चंचल रीति प्रकृति की, कब होता प्रतिवाद॥

हृदय मनुज के ही बसता है,
चंचलता का भाव।
बचपन का मन नटखट होता,
चढ़ती आयु दुराव।
माप दंड ये कौन बनाये, मन कितना आज़ाद।
देखें चंचल रीति प्रकृति की, कब होता प्रतिवाद॥