अविनाशी का अवकाश / रचना उनियाल
अजर अमर अविनाशी अक्षर, परम सेतु से सृष्टि पले।
आदि अनंता समय नियंता, जगत देव अवकाश चले।।
अरुणोदय की उदयाचल पर,
भानु रश्मि भी ठहर गई।
वसु की वसुधा पर पुष्पों की,
पंखुड़ियों की सहर गई।।
कल कल छल छल, सननन सननन,
प्रकृति गीत भी सुप्त हुआ।
हलधर से धरती पर सजता,
हलधर हल भी गुप्त हुआ।।
षठऋतुओं के बंधन से तो, ठहरा जीवन श्वास तले।
आदि अनंता समय नियंता, जगत देव अवकाश चले।
मन मरंद की जीव मृदा में,
काय कोशिका सृजन थमा।
नेह डोर के परिमापों से,
नवरस का भी गमन थमा।।
अंतह वासित सत रज तम गुण,
धरे रूप में धरे रहे।
खग नभ जलचर अरु मानव के,
प्राण कोष भी रुके कहे।।
चित्त पाश के चपल चक्र का, अवरोधन का धाम बले।
आदि अनंता समय नियंता, जगत देव अवकाश चले।।
देव भावना का अनुगुंजन,
संचित भावों संग बहे।
मनुज मनन में मृदु मानवता,
प्रभा प्रभाकर प्रहर गहे।।
नभगंगा के ब्रह्म गगन का,
परमेश्वर ही पालक है।
दीनबंधु से विनती करता,
जड़-चेतन सब कारक है।
अविरत रहना हे जगधारक, कृपा सिंधु की कृपा फले।
आदि अनंता समय नियंता, जगत देव अवकाश चले।।