आभार / संगीता शर्मा अधिकारी
आभार,
आभार उन सभी जल कुकड़ों का
जिन्होंने हमेशा मुझे चर्चा में बनाए रखा।
ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर की टेबल
दफ़्तर के बंद केबिंस
फाइलों की बंद नोटशीट
मोबाइल कॉल्स और
चाय की चुस्कियां में मुझे जीवित रखा।
वरना कौन, किसे, कब
कहां जगह देता
याद रखता है आजकल
इतना समय भी नहीं किसी के पास
किसी को याद किया जाए बारहां।
आभार,
कि तुमने गाहे-बगाहे
जाने-अनजाने
मेरी राह में कांटे बोए
कीचड़ फैलाया
और मुझे कमल सा खिलाया।
आभार,
कि तुम जलते रहे
पैदा करते रहे रुकावटें लगातार
पर मैंने भी कहां मानी हार।
बस ढिठाई से डटी रही
और जो चाहा वो पाया हर बार।
तुम्हारे चाहने से ही
सब नहीं होता और
न होगा इस दुनिया में
फिल्म तो हम सब की
पहले से ही तैयार है
बस जुटे हैं हम सभी
अपनी-अपनी भूमिकाओं को
निभाते हुए देखने में।
तुम कोई खुदा नहीं
एक नाम ही तो हो
या फ़िर कोई एक पद मात्र
वो भी घिनौने षड्यंत्रों
दुष्ट चालों का
उठापटक शतरंज की बिसात का।
जबरन मठाधीश बन बैठी
गुटबाज़ी-घेराबंदी की घिनौनी सोच का।
तुम्हारे करतब, तुम्हें मुबारक
मेरी चाल
मेरा अंदाज
मेरा जायका
मेरी पहचान
मेरा स्वाभिमान
फ़िर भी,
इस सब के बीच भी
आभार
आभार
तुम्हारा आभार
दिल से साभार मित्रों
जिन्होंने
मुझे रचनात्मक बनाया
अपनी कमियों पर
पार पाना सिखाया
हर क्षेत्र में कुछ अभिनव
कर जाने का जज़्बा जगाया
सफ़लता को प्राप्त कर
शिखर तक पहुंचाया।
जिन्होंने
मुझ में यह अहसास भरा
कि मैं भी रचनाधर्मी हूं
सृजनक्षम हूं मैं
सृष्टि रचना का एक कण मैं भी हूं।
आभार
आभार
साभार तुम्हारा मित्रों।