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अतृप्त इच्छाएं / संगीता शर्मा अधिकारी

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पुरुष जहाँ चाहे जब चाहे
पूरी कर लेता है
अपनी सभी इच्छाएँ
कर लेता है तृप्ति
अपनी हर एक चाहत की।

पर एक स्त्री
एक स्त्री क्यों बाँध लेती है
अपनी इच्छाओं का
एक टाइट-सा जूड़ा
अपने मस्तक की
एकदम ऊंचाई पर
इतना ऊंचा
कि कोई चाहकर भी उसे छू ना सके।
 
कि कहीं गलती से भी खुल न जाए
उसकी इच्छाओं की गांढ।

क्यों हर घड़ी उसे ये डर है
कि कहीं से कोई आकर
टांक जाएगा एक फूल
उसके जुड़े की गांठ में
और फिर वह चाहकर भी
रोक नहीं पाएगी
अपनी बरसों से
अधूरी
सुषुप्त इच्छाओं को
और न ही समेट पाएगी
ख़ुद को
ऐसी कई गांठों को मुखर होता देख।

फ़िर सिमटना भी क्या
स्त्री की ही नियति है?
बिखरना उसका अधिकार
उसकी इच्छाओं की परिणति क्यों नहीं?

क्या ताउम्र जीती रहेगी वो
इन अतृप्त इच्छाओं के साथ?
और अंत में मर भी जाएगी
उन्हें अपने संग लिए!