जन-जन की हिंदी / संगीता शर्मा अधिकारी
मां भारती की बिंदी हूँ
हाँ मैं जन-जन की हिन्दी हूँ
मैं भावों की अभिव्यक्ति हूँ
मैं राष्ट्र की संपत्ति हूँ
हाँ मैं जन-जन की हिन्दी हूँ।
संस्कृत मेरी जननी और
लिपि मेरी देवनागरी है
मैं भारत भाग्य विधाता हूँ
मैं वीर जवान की गाथा हूँ
मां भारती की बिंदी हूँ
हाँ मैं जन-जन की हिन्दी हूँ।
BUT बुट नहीं मुझमें
PUT पुट नहीं मुझमें
जैसी बोली वैसी लिखी जाती हूँ
मैं सबको राह दिखाती हूँ
मां भारती की बिंदी हूँ
हाँ मैं जन-जन की हिन्दी हूँ।
वेदों की सिद्ध ऋचाओं में
उपनिषदों के अध्यायों में
मैं ही हरदम जीती हूँ
पीयूष-हाला सब पीती हूँ
मां भारती की बिंदी हूँ
हाँ मैं जन-जन की हिन्दी हूँ।
कश्मीर से कन्याकुमारी तक
बंगाल से महाराष्ट्र तक
मैं आदि से अंत तक हूँ
चहुं ओर पल्लवित-पुष्पित हूँ।
मां भारती की बिंदी हूँ
हाँ मैं जन-जन की हिन्दी हूँ।
गंगा-जमुनी तहजीब हूँ मैं
हिंदू-मुस्लिम की दिवाली ईद हूँ मैं
रोजी-रोटी की पहचान हूँ मैं
दीन-धरम-ईमान हूँ मैं
मां भारती की बिंदी हूँ
हाँ मैं जन-जन की हिन्दी हूँ।