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कविता और कवि / मृदुला सिंह

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कवि अपने कांधे पर उठाए चलते हैं कविताएँ
जैसे खेमा बदलते जरूरी सामानों को
पीठ पर लादे
चल रहा होता है खानाबदोश
कवियों के मन की
बंद पोटलियों से
जब खुलती हैं कविताएँ
तो धरती का रंग
हरा होता जाता है
स्कूल जाते हजारों
मिट्टी सने पांव सदी की
बड़ी घटना सरीखे दिखाई पड़ते हैं
चिड़ियों के बंद पिंजरे खुलने लगते है
जब पढ़ी जाती हैं
सम्मेलनों सभाओं में ये कविताएँ इस तरह कि
आकाश तो पक्षियों का ही है न
उन्ही का रहने दो

मनुष्यता पर जब भी
चोट करता है कोई नरपिशाच
यही कविताएँ लोहा हो जाती हैं
खड़ी रहती हैं पीरा के प्रतिरोध मे
आषाढ़ की बारिश के भरे बाँध-सी
ये अपने अंतस में छिपा के रखती हैं
माटियों का कल्लोल
सहिष्णुता प्रेम प्रकृति आजादी
और हर प्रकार की समानता को
कविताएँ ही बना पाती हैं
रहने लायक जगह दलदली जमीन से

जब ये खुलती हैं
तो उफनाती नदी के वेग के
हुंकार की ध्वनि सुनाई देती है
पुरस्कार नहीं
दुत्कार में गर्वित होती ये कविताएँ
फैल जाती है
युवा होती किसी लड़की के
आंखों में भीगते काजल की तरह
ग्रीष्म के फूल तो फूलते हैं जंगलो में
कंक्रीट के गमले में उगाए नहीं उगते कभी
कवियों की आंखों में फूल रही है कविता
खुलती रहेगी खिलती रहेगी
बचाने को धरती पर
प्रेम की सुंदर-सी दुनिया