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तेरा मिलन / हरदीप कौर सन्धु

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तेरा मिलन
सुना जाता है मुझे
हर पल ही
अनकहा -सा दर्द
बहता रहा
जो तेरी अँखियों से
निचौड़ी गई
अधूरे अरमान
कठिन राह
अब कहाँ से लाऊँ
पीर खींचती
कोई जादुई दवा
धीरे -धीरे से
तेरे खुले ज़ख्मों पे
रखने को मैं
उठी बिरहा -हूक
बेनूर हुई
लबों पे आ लौटती
काँटों चुभती
तीखी -सी टीस ने
हौले -हौले ही
समय की तल पे
यूँ फ़ाहे रख
खुद ही हैं भरने
तेरे दिल के
अकथ औ असह्य
गहरे दर्द- ज़ख्म !