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झाँकता बादल की ओट से / निवेदिता चक्रवर्ती

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झाँकता बादल की ओट से,
अब तक सूर्य डूबा नहीं है।।

शैशव की रक्तिम आभा को
काल घूँट- घूँट पी गया है।
दल कर अपनी पीड़ाओं को,
फिर भी वो खूब जी गया है।।

संघर्षों के आघातों से,
 किंतु अब तक ऊबा नहीं है।
झाँकता बादल की ओट से,
अब तक सूर्य डूबा नहीं है ।।

माथे की स्वेद बिंदुओं पर,
उसका अस्तित्व चमकता है।
कैसे नकारेंगे उसे हम,
जो चेहरे में झलकता है।।

संसार के नियमों में पला
वो कोई अजूबा नहीं है।
झाँकता बादल की ओट से,
अब तक सूर्य डूबा नहीं है ।।

अवसान की घड़ियों में,
फिर वो रक्तिम रक्तिम होगा।
गौरव का एक अतीत लिए,
छटा बिखेरे स्वर्णिम होगा।।

आकाश की गोद में खेला,
सिमटा हुआ सूबा नहीं है।
झाँकता बादल की ओट से,
अब तक सूर्य डूबा नहीं है ।।