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किसान / अमृता सिन्हा
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आंदोलनों के चक्रव्यूह
में फँसा
महीनों अनिश्चितताओं से जूझने के बाद
थक-हार
अपनी सारी ताक़त खो कर
हारे हुए सैनिक-सा, घर लौटा झुमरू
भाँय भाँय करते
मरघटी सन्नाटों के बीच, पसरे सूखे खेत,
वीरान, बेतरतीब खलिहान
कुछ भी पहले-सा नहीं था
ना हवा में जान बाक़ी थी
ना पानी में स्वाद
बदहवास मन
और
रक्त रंजित विश्वास
भीतर का सारा मंज़र सर्द
बर्फ सा
ज्यों का त्यों ठहरा
प्रपंच और अविश्वास
से घिरा वह
प्रश्नों के ज़खीरों से जूझता
दौड़ता भागता
निरंतर, हारा हुआ
टूट-सा गया है
प्रार्थना के लिए उठे हैं हाथ
पर निरंतर हताशा ही मिली
शायद अब भी
ईश्वर, कुंभकर्ण सा
गहरी नींद में सोया है।