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दोपहरें / यानिस रित्सोस / मंगलेश डबराल

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सूर्य व्यर्थ समय नहीं गँवाता —प्रचण्ड सूर्य हम पर शासन करता हुआ,
उसकी तनी हुई भृकुटियाँ, उसके स्थिर जबड़े,
उसका बालदार वक्ष खुला हुआ दूर समुद्र तक ।
एक माह । दो माह । तीन माह ।
हम चलते रहे अपने कन्धों पर पत्थर और ख़ौफ़ ढोते हुए,
अपनी अँगुली मोड़कर सुराही को बजाते हुए,
और पानी की सुदूर आवाज़ सुनते हुए
जैसे हम किसी दरवाज़े के पीछे एक स्त्री की आवाज़ सुन सकते हों,
जैसे वह स्त्री छोटे से छोटे तारों की आवाज़ भी सुन सकती हो,
जैसे वे तारे साँझ की आहट को सुन सकते हों ।
दोपहरें अथाह थीं
देहात में बच्चों से रहित रविवार जितनी लम्बी,
पूरे दिन यहाँ दोपहर रहती है, उगते सूर्य से डूबते सूर्य तक ।
अगर हम कुछ कम प्यासे होते तो हमारे दिमाग जकड़े हुए नहीं होते,
अगर वहाँ एक पेड़ होता पहाड़ी पर या द्वीप की चोटी पर ।
अगर मुट्ठी भर छाया होती, कम कड़वाहट होती, कम अन्याय होता
अब हमें किसी पेड़ की आकृति याद नहीं
— क्या वह
पानी की एक विशाल पताका की तरह है ?
या अतीत में तुमसे कहे गए
’धन्यवाद’ की तरह ?
या एक प्रेमी के हाथ की तरह जो तुम्हारे हाथ को खोजता है ?
कल के बाद आने वाले कल हम रोपेंगे एक हज़ार पेड़ ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : मंगलेश डबराल