भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तृष्णाओ का नृत्य / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:55, 1 दिसम्बर 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश' |अनुवाद...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कहाँ ठीक से अपने अब तक हमने झाँका है ?
मन-मन्दिर है नहीं मोह-ममता का केवल खाका है ।

बाहर-बाहर उपदेशों के भव्य आवरण चढे हुए,
भीतर-भीतर तृष्णाओं का नृत्य चल रहा बाँका है ।

मन्द दिये में पढते-पढते मन्द हो गये दृग उसके,
पर समीक्षकों ने प्रतिभा को ठीक-ठीक कब आँका है ?

भूमण्डलीकरण का युग है रही दूरियाँ अब न कहीं-
इन्टरनेट कम्प्यूटर ने कुछ ऐसा किया धमाका है ।

आदर्शों का हुआ विसर्जन नैतिकता के श्राद्ध हुए,
पोषण होता ध्वंसध्सर्मिणी यन्त्र शक्ति अधमा का है ।

गुलदानों में फूल कागजी विरस शुष्क से सजे हुए,
मौलिकता सब अस्त हो गयी कृत्रिम रूप् प्रभा का है ।

उगल रहीं चिमनियाँ धूम के घन अम्बर में घुमड रहे
फहराये हर ओर प्रदूषण अपनी विजय-पताका है ।

घोर स्वार्थ का ज्वार उठा है पर दुख पर पाषाण बने,
भाव रंच भी कहाँ रह गया मन में आज दया का है ?