भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हलकू की इकलौती चादर / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:59, 2 दिसम्बर 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश' |अनुवाद...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
हर तेवर में धार हो गयी।
बर्फीली बौछार हो गयी।
आ पहुँची है सर्दी जब से
हवा खुली तलवार हो गयी।
बुढिया-सी निस्तेज धूप है
जैसे रवि की हार हो गयी।
साँझ-सवेरे हुए हिमानी
दुपहर भी लाचार हो गयी।
महलों से क्या लौटी सर्दी
फुटपाथों की मार हो गयी।
ठिठुर-ठिठुर कर आज गरीबी
जीने को है भार हो गयी।
हलकू की इकलौती चादर
तार-तार बेकार हो गयी।