भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रो रहा है अदब / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:02, 3 दिसम्बर 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश' |अनुवाद...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
क्यों न मंगल कलश है पुजाया गया?
जन्मदिन पर दिया क्यों बुझाया गया?
स्वस्तिवाचन हटाया गया कर्म से
पाप-संगीत का स्वर सजाया गया।
दूब-अक्षत न रोली न हैं गुलगुले
केक को काटकर है खिलाया गया।
शान्ति संयम गया, लोक लज्जा गयी
पूर्व की सभ्यता को लुटाया गया,
काट जंगल, बगीचे उजाडे गये।
हर नदी को जहर है पिलाया गया।
नग्न अश्लील दर्शन हुए सब तरफ
लाज का आवरण है हटाया गया।
लडकियाँ, बाप-बेटे हुए मित्र-से,
साथ ही महफिलों में नचाया गया।
रो रही शर्म है, रो रहा है अदब,
रास ऐसा दिलों में रचाया गया।