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सजती दूल्हा सी / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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जीवन के वे स्वर्ण पर्व हो गये प्रवासी।
लगने लगा सभी कुछ, अब तो बासी बासी।

अरे बहारो! बार-बार मत इधर निहारों
जब आकर बस चुकी ह्दय में घोर अमा-सी।

क्यों पुरवा चलती? क्यों फिर-फिर फागुन गाता?
क्यों अमराई बौराती, सजाती दूल्हा-सी।

क्योंकर प्राणों में जग जाती नूतन ऊर्जा,
मन में आती उभर वही छवि नयी प्रभा-सी।

मन! मेरे क्यों अतिक्रमण तू करने लगता
चेत अरे तरूणाई अब दे रही विदा-सी।