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जीवन की परिभाषा / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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सरस विरस अनुभव से ही मिल पाती मौलिक भाषा है।
जीवन खुद ही गढता अपने जीवन की परिभाषा है।

ये मरूथल के चन्दन हैं सदगन्ध कहाँ मिलती है इनमें?
ओ गुदड़ी के लाल! लौट चल व्यर्थ कर रहा आशा है।

कितनी मुझमें परिवर्तन! परिवर्तन तू है चाह रहा।
दुःख दर्दों ने अश्रुधार से मुझको खूब तराशा है।

इन बेदर्द घटाओं में खप्पर की आँखें भी रोयीं।
ढहती हुई झेापडी में विजयी हर ओर निराशा है।

मेरूदण्ड का अलिंगन करती आँखे पथ देख रहीं
आश्वासन का नित्य आगमन होता मात्र हवा-सा है।

नेपथ्यों में मंचन होता है विश्वासघात का नित
सत्य शान्ति के मंच रिक्त है दयाधर्म उजड़ा-सा है।

राम, कृष्ण, गौतम, गांधी, नानक, सुभाष की धरती पर
राष्ट्र एकता का घातक जैचंदी वंश बढ़ा-सा है।

सम्बन्धों के भाग्य अस्त हैं अपमानों की सत्ता में
शिष्टाचार, स्नेह, आदर का मुखड़ा हुआ उदासा है।

शहर, गाँव सब किये प्रकाशित इस वैज्ञानिक उन्नति ने
अन्धदीप से किन्तु जनमनों को कब रंच प्रकाशा है?