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काँप रही है डोली / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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सारहीन हो रही आजकल क्या फागुन क्या होली रे !
शोणित से अभिषेक हो रहे आँसू आँसू रोली रे !

अरमानों की कौन कहे स्वयमेव सिद्ध हैं इस युग में,
कुछ भी पाक नहीं लगता है क्या दामन क्या चोली रे !

चाल दुरंगी, ढाल दुरंगी, बात दुरंगी आखिर क्यों ?
एक हाथ में समझौता है एक हाथ में गोली रे !

यहाँ न सवेदना मिलेगा यहाँ हवाएँ हैं उलटी
यहाँ गठरिया पीड़ाओं की क्योंकर तूने खोली रे !

जलते बुझते रहे निरन्तर भाव दीप अपने अन्तर
घूँघट डाले हुए व्यथा की बधू रही अनबोली रे ।

चाल कहारों की कुछ का कुछ सखे ! इशारा करती है,
सहमी सहमी भीतर भीतर काँप रही है डोली रे !

किसने आकर तुंग तरंगे उद्वेलित कर दी उर में
महकाया है मन का मधुबन अमरत धारा घोली रे !