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अजाना पथ / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
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दूर बहुत है अपना डेरा तनहा सफर कटेगा कैसे ?
विश्व विजयिनी महानिशा है तम का जाल छटेगा कैसे ?
एक अजाना पथ जीवन है और विवश है चलने को मन
कदम कदम उन्नत कंटक है कोमल पाँव बढेगा कैसे ?
अवरोधों की की सबल शिलाएँ सुरसा मुख को मात कर रहीं
पर विवके हनुमान नहीं है दुख का सिन्धु घटेगा कैसे ?
आकर्षण की विविध छटाएँ जब तक जनमेगी विचार को
घनावृत्त मन के अम्बर से रंग कुरंग हटेगा कैसे ?
तुम तो शान्त साधना रत से मेरे उर में अजपाजप से
और मुझे बाहर उलझाया मनुवा तुम्हें रटेगा कैसे ?
मोह अमावस की छाती पर हैं विराग की चन्द लकीरें
शेष अभी कामना मुक्ति की पावन वेणु बजेगा कैसे ?
मेरे प्राणों के अभिन्न जब निकलोगे मन के मन्दिर से
निरालम्ब होकर मेरा उर बोलो नहीं फटेगा कैसे ?