भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आत्मनिरीक्षण / संतोष श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:47, 25 दिसम्बर 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संतोष श्रीवास्तव |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अकेलापन अकाट्य ,अभेद्य
अंतरात्मा की गहराई से
अनुभव किया उसने
सब कुछ के बावजूद
सब कुछ की समाप्ति के बाद
उसका मुस्कुराते रहना
जैसे कांटों में खिला गुलाब

अपने विराट दुख में से
सांस रोककर ,खींचतान कर
थोड़ा सा सुख निकालना
दुख की विशाल मूर्ति के
कोनों से कुरेद कुरेद कर
थोड़ी सी मिट्टी निकाल
सुखों के छोटे-छोटे
गुड्डे गुड़िया गढ़ना
दुख की परिभाषा
बदल डालना

नंगे पांव
धधकते अंगारों पर चलना
जिंदगी भर
अग्निपरीक्षा के दांव ही तो
खेलती रही वह
भले ही पाँसे दगा देते रहे
पर बाजी अंत तक खेली उसने