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जो अनकहा / शशिप्रकाश

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दुख का एक दरख़्त था I

अधूरी ख़्वाहिशों की
झड़ती हुई पीली पत्तियाँ,
टपकते रहे कभी आँसू
कभी रक्त I

खुरदरी छाल वाले तने के नीचे
जहाँ सहिष्णु और धैर्यवान जड़ें थीं,
एक सोता बहता था
जड़ों से फुनगियों तक
 
और हृदय,
वह तो आकाश में थरथराता रहा
कन्दील की तरह  !