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पाषाण शिला / विनीत मोहन औदिच्य
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हूँ शापित पाषाण शिला,सहती तीक्ष्ण धूप सूरज की।
यामिनी हिम शीत अंबर, बारिशों में धार जल की।
वियोगी मुझको भिगोते, भावना के ज्वार से बस।
सूख जाता दृगों का जल, सिक्त रह जाता है अंतस।।
मौसमों का वार झेलूँ, समय से ना त्राण मुझको।
वेदना रिस रिस के बहती,मत कहो पाषाण मुझको।।
साथ में है कौन मेरा, सहारा जिसका मैं ताकूँ?
नयन के आगे अँधेरा, गवाक्षों में कहाँ झाँकूँ?
मौन दिखती हूँ भले ही मुखर,हो कुछ कह रही हूँ।
मानवों की यातना को,विवश जड़ बन सह रही हूँ।
पाशविक संसार में अब, छा गया है तम घनेरा।
सो रहे बेसुध मनुज सब, दूर दिनकर का सवेरा।।
हूँ अहल्या भी नहीं मैं, राम की जो राह देखूँ।
भाग्य रेखा मिट चुकी है,ना हृदय की चाह देखूँ।।
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