भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कोई ख़्वाब तो ऐसा आए / प्रशान्त 'बेबार'
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:48, 2 मार्च 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रशान्त 'बेबार' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
कोई ख़्वाब तो ऐसा आए
जो गहरी नींद लगाए
हम भीगे कुल्लड़ ख़ाके दोनों
चाँद को ओढ़े सो जाएँ
गीले सकोरों में रातें सोयीं
न कोई उन्हें उठाए
सब सोएँ तो जागे रैना
भोर भए, रैना सो जाए
पी लेने दो रात के बादल
करवट पे दर्द सुलाए
एक टुकड़ा जो चाँद का नोचा
अब भूख भले मिट जाए
चाट के मिट्टी चखी हवा करारी
सागर छूके मन खारी खारी
दो पल चैन और इक वक़्त रोटी
बस आँख वहीं लग जाए
कोई ख़्वाब तो ऐसा आए।