भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यादों का शॉल / प्रशान्त 'बेबार'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:52, 2 मार्च 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रशान्त 'बेबार' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये कैसा थान है वक़्त का
लम्हा लम्हा खोलूँ तो
उधड़े उधड़े से रेशे निकल रहे हैं
हर-पल "पल" फिसल रहे हैं

इस थान से जो काटे थे लिबास
अब बीत चुके हैं
माज़ी की पोशाकें फबती नहीं
यादों की क़मीज़ जँचती नहीं

इस वक़्त के थान में ढूँढो कोई
बिना किरच का हिस्सा,
और एक बड़ा सा दिन काट दो

इस दफ़ा शॉल बनानी है याद की
तुम्हें दिन भर ओढ़ूँगा भी
और बिछाऊँगा भी।