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मार्च की सुबह / केदारनाथ सिंह

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झर झर झर ...
झरती हैं पत्तियाँ सवेरे से
आज हवा पागल है !

कौन उसे समझाए,
कौन उसे मना करे
दूर-दूर कूलों की
ढेरों ख़बरें लेकर
कमरे में आती है,
कंकड़,
खर-पात और बन सुग्गों की पाँखें
चुपके से
जेबों के अन्दर धर जाती है
अनजाने द्वीपों के
नम उदास फूलों की
आकृतियाँ लाती है;
देहरी पर
आँगन में
जी भर बिखराती है
एक नहीं सुनती है
गलियों में सड़कों पर
चिड़ियों के कच्चे
घोंसले गिरा देती है
अधभूले ख़यालों से
लहराते वस्त्रों के
छोर फँसा देती है
पागल है ! पागल है !

मैंने जब मना किया,
पीले पत्ते बटोर
उठकर चुप चली गई
खण्डहर की ओर
उधर झाड़ों-झँखाड़ों में
और अकारण पगली
मुँह पर पत्ते रखकर
हँसती ही जाती थी
हँसती ही जाती थी
ओझल हो जाने तक ।