इक्कीसवीं सदी के ईश्वर / हर्षिता पंचारिया
सभ्यता के पथ पर
ईश्वर की अशेष परिभाषाएँ रची गई,
रचे गए सभ्यता के विकास के पहियों पर
अनंत अँगूठों के निशान।
फिर मनुष्य के विकास को अँगूठा दिखाते हुए
जब तुम्हारे आगमन ने
मनुष्य की तमाम उपलब्धियों को
चुटकियों में गमन कर दिया।
तब आसमान को छूती अट्टालिकाएँ
"अट्टाहास" भरा "कारावास" बन गई,
"साँस" लेना भी दूभर हो गया
और मनुष्य ही मनुष्य से भागने लगा
चींटी से भी हज़ार गुणे छोटे
"विषाणु" ने इतनी बड़ी
दुनिया को घुटनो पर खड़ा कर दिया।
घुटने पर खड़ा व्यक्ति जानता है कि'
उसका क़द कितना ऊँचा है
कितना ऊँचा है ईश्वर का सिंहासन,
कि लाशों के ढेर पर बैठकर भी
ज़रा भी दिखाई नहीं पड़ता।
बस दिखाई पड़ता है तो
बिना भय के रोज़ झाड़ू लगाता सफ़ाईकर्मी
बिना शंका के PPE किट पहना चिकित्साकर्मी
बिना लालसा के डंडा घुमाता हुआ पुलिसकर्मी
और बिना निराशा के लैब में दिन रात
काम करता हुआ वैज्ञानिक
जो कृत संकल्पित हैं
सदियों से गढ़ी ईश्वर की परिभाषा को
"इक्कीसवीं सदी"
में एक नए तरीके से
फिर से पुनर्स्थापित करने के लिए।