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गांव और शहर / चंदन द्विवेदी

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अब जाना छत पर क्यों सोना अच्छा था
आंखों का चंदा तक सीधा रस्ता था

एक पेड़ था उसके नीचे बुढ़िया थी
दूर देश में सबका मामा चंदा था

एक मनोहर पोथी वाले बापू थे
सबसे प्यारा बचपन का वह बस्ता था

दस पैसे में जी भर हवा मिठाई थी
घी तो पांच रुपल्ली से भी सस्ता था

यम्मा मॉर्टिन यम्मी बरफ़ मलाई थी
सुबह सबेरे च्यवनप्राश का डब्बा था

दुनिया भर का सैर सपाटा करने को
बाइस्कोप ही पासपोर्ट था वीजा था

कदम कदम पर राजमहल की खुशियां थी
उंगली पर ही ताजमहल का नक्शा था
 
कोई घड़ी नहीं थी, न कोई फोटो था
मन की दीवारों पर सबकुछ चस्पा था

लुकाछिपी, लूडो और कबड्डी थी
दरवाजे के पीछे तेरा धप्पा था

शहरों ने तो छीन लिया है जीवन को
देसी दिल था गंवई बचपन सच्चा था

रंग समझने लगा तो सब बदरंग दिखे
नासमझी थी रंगों की वो अच्छा था