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बाग़ में बग़ावत / विनोद शाही

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डायर का हुक़्म है
बाग़ सैर के लिए हैं, मैदान खेलने के लिए
जलसे जूलूस के लिये आ सकते हैं लोग सड़क पर
शर्त यह है कि ट्रैफ़िक ना रुके
शर्त यह है कि वहाँ सिर्फ़ औरतें ना दिखें
और शर्त यह भी है कि गुण्डे, नक़ाबपोश या पुलिसवाले
उनकी आड़ में हिंसा करें
तो इल्जाम वे ख़ुद अपने सिर ले लें
ज़ख़्म खाएँ तो करा लें इलाज, देशभक्त कहलाएँ
हो जाए लिंचिंग तो कुर्बानी समझें
ख़ुद ही अपनी राम राम बोलें, शहीद हो जाएँ

हुक़ुम पर तामील कराने
जलियाँवाले बाग़ से लेकर शाहीन बाग़ तक
पुलिस ने गश्त लगाई
लौटकर रपट लिखाई
लोग नहीं, सपने निकल आए हैं सड़कों पर
जलसे करते हैं निकालते हैं जुलूस
बोलते हैं सपने आज़ादी आज़ादी आज़ादी
बस, आज़ादी

हो गया फ़रमान जारी
पकड़कर ले आओ
जो भी लगे हाथ सपने या आज़ादी
पहनाओ हथकड़ियाँ, डाल दो जेल में

ट्रेनिंग नहीं थी सपनों का पीछा करने की
फिर भी सिपाही खोजते खोजते
पहुँच गए समय के चक्रव्यूह के मुहाने पर
पहली पाँत में खड़े थे इतिहास के कुछ नायक
दूसरी पंक्ति में कुछ विचार
तीसरी में प्रेम
चौथी पाँत में कुछ कविताएँ
मज़बूत था दुर्ग
अन्दर ही अन्दर निकलते आते थे
व्यूह के परम गुप्त द्वारों के रक्षपाल

मिलते ही रपट बनाई गई रणनीति
खोजे गए नए अस्त्र-शस्त्र आयुध ब्रह्मास्त्र
जारी हुआ फ़रमान
इतिहास के सबसे बड़े नायक को मार दी जाए गोली
 
पहले से ही तीन गोलियाँ खाकर छलनी था इतिहास पुरुष
लेकिन हुक़्म तो हुक़्म था, उसे फिर से मारा गया
उसकी जगह लाया गया दूसरा इतिहास नायक
वह जेल से छूटकर अभी अभी आया था
कराई गई उससे तरीर
मेरी तरह सरकार की करो मिन्नत
काले पानी से निजात पाओ
सच में देशभक्त हो जाओ

देखते-देखते छिन्न-भिन्न हो गई
सपनों की पहली सुरक्षा पंक्ति
फिर आई विचार की बारी
बेअसर करने के लिए उसे
अलहदा किया गया उसे भाषा से उसकी
अकेली रह गई भाषा तो उसे मारे गए डंडे
तोड़ दी गई हड्डी पसली
फोड़ दी गई खोपड़ी, जिसके भीतर पनपते थे विचार
पीछे छोड़कर फिर वे चले गए अपने
टूटी फूटी भाषा के टुकड़े
मिल गया सुबूत हाकिम को कि वे वाकई थे
पढ़ लिख गए टुकड़े टुकड़े गैंग के सरकार द्रोही सिरफिरे
सपनों के व्यूह की
इस तरह टूट गई, दूसरी भी किलाबंदी

तीसरी जो पांत थी उसमें था लेकिन
प्रेम का बस बोलबाला
नफरत ने टुकड़े हिंदवी के उर्दू जुबान के जो किए थे
प्रेम ने वे सब उठाए और उन पर लिख दिए
टुकड़खोरो डंडानशीनों ट्रिगर हैप्पी हिंसकों
डायरों से देश की
मुकम्मल आजादी के ही नारे
पीछे खड़ी कविताओं ने भी
टीस को उन में मिलाया
पीर को लयबद्ध कर के, रामधुन में बदल डाला
सूफियों संतों की वाणी, जुगलबंदी कर उठी
सपनों की पीछे हो रही थी अनवरत जो कदमताल
लग रही थी हो ज्यों कोई, फौजी कवायद मार्च पास्ट
 
डायर को पहली बार चि सी हुई
फौजियों को कबसे सपने देखने की लत लगी
अच्छे दिनों में बुरी घटना क्यों घटी
'अंग्रेज़' शासक ने पुनः सोचा यही
क्यों न विभाजित करके भारत को चलूं फिर से कहीं ?