फूस की छत से छनकर
जब आँगन को
रौशन करती थी चाँदनी,
तब भी स्याह रातों को
दरवाजे पर लगी
जंगियायी खूंटी से
लटकती रहती थी वो
हरे रंग की लालटेन!
हल्की गोधूलि बेला में
जब सूरज आतुर होता
पहाड़ों के पीछे छुप जाने को,
तब भी दादीजी माँ को कहतीं
लक्ष्मी आगमन का पहर है,
और माँ आँचल सँभालते
धीरे-धीरे बढ़तीं,
उठातीं माचिस की तीली,
और फिर से जल उठती वो
हरे रंग की लालटेन!
दादाजी जब कभी हो जाते लेट,
दादीजी घंटों राह ताका करतीं
लिए हाथ में फिर वही
हरे रंग की लालटेन!
अहले सुबह जब दादाजी
उठाते पढ़ाने को पहाड़ा,
और नहीं उठने पर
सुनने पड़ते थे
उनके हज़ारों ताने
ऐसे में बत्ती गुल होने पर भी
दादीजी नहीं मनाने देती थी जश्न!
जलाकर खुद साथ बैठती थीं वो
हरे रंग की लालटेन!
उम्र बढ़ती रही अपनी रफ्तार से,
मद्धिम पड़ने लगी
उनकी आँखों की रोशनी!
फिर तो जैसे
हमनज़र, हमसफर हो गई वो
हरे रंग की लालटेन!
जब दादीजी ने ली
अपनी आखिरी साँस,
इत्तेफाकन तब भी
कोई नहीं रह पाया था पास!
बस्स! सिरहाने के एक कोने में
भभक-भभक कर जल रही थी वो
हरे रंग की लालटेन
आज जबकि दादी नहीं हैं,
दादाजी भी नहीं हैं,
उनके कमरे के एक कोने में वह
बिन बाती बिन पेंदी उपेक्षित है!
पर मेरी नज़र से देखो
आज भी, बहुत रोशनी देती है वो
हरे रंग की लालटेन!