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बेजरूरत की किताब / अमित कुमार अम्बष्ट 'आमिली'

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लिख कर सहेज लेना चाहता हूँ
तमाम दस्तावेज, इससे पहले कि
वक्त लिखकर मेरी मौत का फरमान
तोड़ दे कलम की नोक
बचपन की स्मृतियों से
वृद्धावस्था तक पहुँचने के
कदमों के हर निशान को
शब्द चित्र में उकेरकर
बनाना चाहता हूँ
एक विस्तृत कैनवास, कि
जिसको अपनी दीवारों पर
टांग सकें आनेवाली पीढ़ियाँ!
लिखना चाहता हूँ
बिन हसरत - यूँ ही कभी
ओठों पर खिल आई मुस्कान,
तो कभी असहनीय पीड़ा में
मौन छटपटाता मैं,
कभी सीने में अंकुरित हुआ प्रेम,
और बिलकुल, वह द्वेष भी
जिसने चीखकर कहा
‘पलट कर मत देखना मुँह!’
कभी अंधेरी सुरंग से गुज़रती जिंदगी,
और कभी दिनकर की प्रथम किरण-सा
आलिंगन करता उजियारा!
तमाम मुश्किलें
और उनसे बस थोड़ी कम खुशियाँ
लिखना चाहता हूँ अपनी
अदनी-सी संघर्ष कथा,
और वे रास्ते भी- जिन पर
थककर छोड़ दिया चलना!
कुछ अपने आदमियत के किस्से ,
तो कुछ स्वार्थ या व्यावहारिकता की
गिरफ्त में फँसा मैं,
और जब मन मारकर दिल नहीं
दिमाग से लिया गया फैसला
सच कहूँ ! - तो आज भी
नहीं समझ पाया
कौन हूँ मैं ?
एक पशु आदमी ?
एक अधूरा आदमी ?
या सवाल यक्ष प्रश्न बनकर
घुमड़ता रहता जो अनुत्तरित
क्या मैं सचमुच हूँ -
एक मुकम्मल आदमी ?
लिखना चाहता हूँ एक
पुस्तक खुद के बारे में,
पर सोचता हूँ
क्या सचमुच बन पाऊँगा
मैं एक उदाहरण?
कि खुद पुस्तक बन सकूँ मैं
ऐसी जो बढा जाए -
किसी का हौसला,
सिखा सके मानवता के फलसफे?
बच्चे क्या सहेज पाएँगे उसे
रखकर अपने तकिये के नीचे,
और यों मुझे सीने से लगाकर?
अथवा यूँ ही पड़ी रहेगी
किसी जर्जर-सी अलमारी के
किसी खाने में गर्द खाकर,
और उसके धूल-धूसर
पन्नों से लिपटा
साथ पड़ा रहूँगा मैं
बेपढ़ी बेजरूरत की किताब बनकर?