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चलो प्रिय चलें / प्रभात पटेल पथिक

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चलो प्रिय चलें परिधि के पार!
यहाँ न मोहन-तत्व शेष है, न ही राधिका-सा मन!
श्वेत पड़ी प्रेमिल-कालिंदी, शुष्क पड़ा वृंदावन।
तुम्हीं कहो किस भाँति जियें हम, क्या लेकर आधार!
चलो प्रिय! चलें परिधि के पार।

यह जग नित्य अप्रेमिल होता जाता है नित वाम।
निशदिन यहाँ कलंकित होता पुण्य प्रेम का नाम।
कुंज-गलिन में आज बिछे हैं, पग-पग पर प्रिय, खार!
चलो प्रिय! चलें परिधि के पार!

चलो चलें हम वहाँ जहाँ हों प्रेमभाव की वृष्टि।
जहाँ बसाई हो मोहन ने, राधा सँग नव-सृष्टि।
जहाँ न होता हो कलियों का किसी भाँति व्यापार।
चलो प्रिय! चलें परिधि के पार!