ख़ून का चश्मा / बाद्लेयर / सुरेश सलिल
कभी कभी मैं अनुभव करता हूँ — मेरा खून लहर-लहर बह रहा
लयबद्ध सिसकियाँ भरता — जैसे कोई चश्मा
साफ़ - साफ़ सुन सकता हूँ उसे —
लम्बी छलाँग भरता, कलकल ध्वनि
किन्तु व्यर्थ है देह को छूना — ज़ख़्म ढूँढ़ पाने को ।
शहर से गुज़रता हुआ, मानो किसी सटी हुई रंगभूमि में
बढ़ता है फ़र्श के पत्थरों को
छोटी छोटी टिपरियों में तब्दील करता
हरेक जीव की प्यास बुझाता
चराचर को लाल रंगता हुआ
कहता रहा हूँ प्रायः उग्र-उतावली अंगूरी शराबों से
दिन भर को जड़ीभूत कर दें भव-त्रास को
जो मुझे खाए जा रहा
अंगूरी आँखों में और अधिक स्पष्टता
कानों में और अधिक तीक्ष्णता लाती है
मैंने चाही सब कुछ बिसरा देने वाली नींद प्रेम में
प्रेम किन्तु फ़कत बिछावन सुइयों का
ताकि पेश कर सके
पीने को कुछ उन निष्ठुर बालाओं को ।
अंग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल