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प्रिय-प्रतीक्षा / प्रभात पटेल पथिक

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चौमासा भी रीत चुका है और शीत ने बाँधे बिस्तर-
मन असहाय हुआ जाता है, पर वह जाने कब आएगी!

हृदया ने आश्वस्त किया था, साथ जियेंगे पूनम रातें!
सोएँगे हम नहीं रात भर, करनी अथक-अनन्तिम बातें!
लेकिन चैत कटा बिन प्रिय के, जैसे फसले कटे अधपकी।
काटा है वैशाख भाँति किस, हैं प्रमाण दो आँख अनथकी!
जेठ मास की लू ऐसी थी, जैसे जान चली जायेगी!
मन असहाय

कितने बात सँजो रखी थी मन में इस आषाढ़ को लेकर।
उस घिरते बादल को लेकर, हरियाले पहाड़ को लेकर।
अबकी नीम-पड़ा वह झूला, बिन डोले ही पड़ा रह गया।
अबकी सावन 'इतना बरसा' कि सागर से बड़ा रह गया!
भादौं की वह काली रातें, भावसिन्धु बिन कब भायेगीं?
मन असहाय ।

धुला हुआ आकाश स्वच्छ अति, सभी दिशाएँ पूर्ण दृश्य थी।
उस कुँआर की शरद रात्रि में, सबकुछ था पर तुम अदृश्य थी।
पीर भला कैसे बतलाऊँ, दिवाली के अमा रात की।
कार्तिक-अगहन बीत चले थे, रही प्रतीक्षा इसी बात की-
चाय-साँझ-छत-ठंड गुलाबी, सङ्ग तुम्हारे कब आएगी?
मन असहाय

पूस-माघ थे कटे न कटते, किंतु नित्य हम कटते जाते।
तापमान जितना गिरता था, उतना ही हम तपते जाते।
प्रिये! आज देखो बसंत है, ये सारा जग फगुआया है।
तुम तो आई नहीं, किंतु, इक पत्र तक नहीं भिजवाया है।
पढ़कर गीत बता देना, क्या होली भी तुम बिन जाएगी?
मन असहाय