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तुम्हारे साथ का जादू / प्रभात पटेल पथिक

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वो बिखरी रेशमी जुल्फें, वह कोमल गात का जादू।
वो बेफिकरी वह अल्हड़पन, खुले जज़्बात का जादू।
जो शब्दों से कहना था, वह कह जाती थी आखों से,
भुला पाया नहीं अब तक, मैं उस लम्हात का जादू।

साल की पहली बारिश में वह तेरा भीग जाना भी।
मेरे न-न करने पर भी, मुझको खींच लाना भी।
झटकना जुल्फ को अपने, घुमाना हाय! इक पल्लू,
भुला पाऊँ भला कैसे, मैं उस बरसात का जादू।
वो बिखरी।

वो तेरा शाम का हर वक़्त, मेरे साथ में होना।
सब कुछ जैसे पाना था, नहीं था कुछ भी ज्यों खोना।
गले में डाल कर बाहें, चले कुछ दूर थे जो पल,
अभी तक है सलामत वो, तुम्हारे साथ का जादू।
वो बिखरी।

अपने प्रेम की इस राह, में वह दिन भी आया जब।
चुभती धूप से लड़ती, प्रेम-तरु की थी छाया जब।
पकड़ी थी कलाई जब, तेरी पहली दफा मैंने,
अजब-सी इक हुई सिहरन, था तेरे हाथ का जादू।
वो बिखरी।

प्रेम का प्रेम में अब तक, समर्पित होना बाकी था।
प्रेम के देवता को पुष्प, अर्पित होना बाकी था।
सघनतम चाँदनी थी और अमिय बरसा रही रजनी,
रहेगा उम्र भर मुझपर, प्रणय की रात का जादू।
वो बिखरी।