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कहो प्रिय / प्रभात पटेल पथिक

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कहो प्रिय! स्मरण हैं क्या, दिवस वह अपनी यादों के?

अचानक व अकारण ही तुम्हारा रूठ जाना वो!
कुछ पल बाद ही लेकिन तुम्हारा मान जाना वो!
तुम्हारी सुधि में क्या-क्या है, कहो प्रिय! आज सुनना है।
अनकही रह गई थी जो, सभी वह बात सुनना है।
मधुर थे वह दिवस कितने! सरल वादों-विवादों के।
कहो प्रिय! स्मरण हैं क्या ।

ज्येष्ठ की धूप थी बीती, धूल से था गगन रीता।
नवल आषाढ़-सी सुंदर, तुम लगती थी सुपुनीता।
याद है! क्या तुम्हें अब भी, वह झूले जो झुलाए थे!
कहूँ क्या, बाद जाने के, ये पल कितना रुलाये थे।
धरा-सी खिल रही थी तुम, दिवस थे हाय! भादों के।
कहो प्रिय! स्मरण हैं क्या

माँ ने जब कहा हमको, तुम्हे देने को आमंत्रण।
प्रिये! फिर वह बिताए जो प्रतीक्षा में तेरे, क्षण-क्षण।
प्रिये! कितनी है स्मृतियाँ, स्मरण तेरे अन्तस् में।
जलाए दीप जो मिल के, दिवाली की अमावस में।
दिन वो, संग आरति के, प्रणयमिश्रित प्रसादों के।
कहो प्रिय! स्मरण है क्या

न जाने एक क्षण में ही, कहाँ तुम थी, कहाँ हम थे।
समझ न आ रहा था कुछ, मौन था मन नयन नम थे।
अचानक, आज हम दोनों, अंततः मिल गए देखो।
कँवल कितने हृदय-सर में हमारे खिल गए देखो।
कि, रानी के लिए बलिदान, करते दिन वह प्यादों के।
कहो प्रिय! स्मरण क्या