भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आस्था - 9 / हरबिन्दर सिंह गिल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:57, 27 अप्रैल 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शब्द स्वयं में
बेजोड़ होते हैं
उन्हें तोड़ने की
कोशिश न करो
वरना समाज
बिखरकर
रह जायेगा।

अगर समाज बिखरा
मानव
अपना चेहरा स्वयं
न पहचान सकेगा
क्योंकि
दर्पण में आई दरार
मनुष्य के
मुख पर ही नहीं
उसके अंतर आत्मा पर भी
एक प्रश्नचिन्ह छोड़ जाएगी।

जैसे प्रश्नचिन्ह
किसी भी प्रश्न का
उत्तर नहीं हो सकता
वैसे ही
टूटे शब्द
किसी भी पाठ के
समुचित
वाक्य नहीं हो सकते।