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आस्था - 39 / हरबिन्दर सिंह गिल

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यह मेरी आस्था ही है
जो मुझे मेरी माँ-मानवता के
अस्तित्व का
अपने अंतः-पटल पर
अनुभूति प्रदान कराती है।
बहती हवाएँ
जिन पर देश की सीमाओं का
कोई पहरा नहीं है।
पर्याप्त है
महसूस करा देने के लिये
मातृभूमि प्रकृति की देन नहीं है
अपितु मानव का
एक घिनौना खेल है।

यदि संभव होता, मानव
सूर्य की किरणों को भी
कर वश में अपने
फैला देता चारों ओर
काला बाजार रौशनी का।