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आस्था - 53 / हरबिन्दर सिंह गिल
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बोलियाँ लगतीं
मेरी माँ-मानवता की
नित नये
उभरते देशों के नाम पर।
इसलिये नहीं
सिपाहियों के खून में
सीमाएँ विजयी करने की
क्षमता का अभाव है।
अपितु मानव के व्यक्तित्व में
छल रूपी जीवाणुओं ने
कुछ ज्यादा ही
घर कर लिया है।
यही कारण है
मानव ने
सीमाओं को जीतने की जगह
अपने ही देश को
विभाजित करने का
षड़यंत्र रचा हुआ है
जहाँ वह स्वयं की जिंदगी को
दांव पर नहीं लगाता
अपितु लगाता है
दांव पर मानवता।