भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आस्था - 55 / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:16, 1 मई 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
बहुत हो गई
ये खून की होली
कभी देश की
सीमाओं के प्रसार के लिये
तो कभी
अपने ही देश में
नयी सीमाओं की
उत्पत्ति के लिये।
काश मानव की लालसा
मानव के खून तक ही
रह सकती सीमित
डर नहीं होता
मानवता के झुलसने का।
झुलसने का एहसास
कितना
कष्टमय और भयावह
हो सकता है
पूछ कर देखा होता
जो हुए थे, शिकार
हिरोशिमा और नागासाकी के।