भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आस्था - 64 / हरबिन्दर सिंह गिल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:24, 1 मई 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह सब शायद
इसलिये हो रहा है
मानव की आस्था
संकुचित होकर
जातिवाद तक
सीमित हो गई है।
संकुचित आस्था
मानव के लिये
कैसे
वरदान साबित होगी
यह मैं नहीं जानता
परंतु
बगीचे में पौधों पर
लगे तुषार को देख
मन उदास हो जाता है।
खुशबू की चाहत
तो दूर उजड़ जाने का डर है।