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बचपन / समीक्षा / साधना शुक्ला

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सरदार जी केप्टन श्री एच.एस.गिल साहब की अनुपम कृति जिसके लेखन में विचारों की शुद्धता मन की सच्चाई और सुलझती गुत्थी उलझता जीवन और इर्द गिर्द बुनता ताना बाना अपने आप शाश्वत, जागृत कृति है। आपके लेखन में मानवता का ज्ञान बचपन की वो पहले जो मानव को अर्थ ढूंढ़ने के लिए बाह्य करती है। बचपन में हँसता, गाता फूलों सा मुस्काता वात्सल्य निर्मल हवा की झोकों की ड़ालियों से झूलते नन्हें मुन्ने बालकों की छवि को आँखों के आगे दर्पण दिखा जाती है बचपन का। और कानों में गूंजती मुस्कानों हँसी का कोयल दूर से सुनाई देती है जिनती दूर पहुँच गया है बचपन और लौटकर ना आने वाला बचपन अपनो ंके अपनों सा बचपन। मन कहता है-

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन।
काँच का तरह उज्जवल हुए दिन।

केप्टन गिल साहब के हृदय में विचार का स्थायित्व जिसे वे सजह की कागज के केनवास पर उकेरते हैं हम शाम, एक ही विचार, एक ही विषय इतने समय तक आम व्यक्ति के मन में रूकता नहीं, हर शाम नया खाना पकाकर खान की चाह रखता मन, और हर शाम लेखनी में नया विचार नयी सोच नयी समस्या लेखन के मन की कंदराओं में स्वतः ही घर कर जाती है। चूँकि केप्टन साहब फौज के वीर सिपाही हैं, वे डटे रहते हैं, पूरा हिम्मत, जोश वीरता के साथ मैदान में दुश्मन के छक्के छुड़ाने के लिये रूके हैं हाथ में बंदूक लिये एक आखिरी दुश्मन को भी समेट कर विजय पताका लहराने के लिये। इसी तरह लेखन और साहित्य सृजन के मैदान में विचार और विषय का मंथन करने के लिये उससे अमृत की अन्तिम बूंद तक निचोड़ने के लिये डटे हैं अडिग सिपाही की तरह रंण बांकुरे गिल साहब कामधेर को दुहा कर अभयंकर एक लिंग पर दुग्ध अभिषेक करके आदि अनादि के सत्य को उजागर करने को।

मानव काल्पनिक जीवनन की उड़ान भरता है, छल, कपट, स्वार्थ युक्त मन में मैल भरे, अपने जीवन में पराजय से ड़रता आगे पर धरता, आतंकवाद के वातावरण में पलता, सांम्प्रदायिकता की मिठास को चखता देश में वर्ण व्यवस्था अर्थ व्यवस्था को दुरूस्त करता, बदलते परिवेश में आस्थाओं, संवेदनाओं, अपेक्षाऐं से विश्वास उठता, विकृतियों शूद्रता, निःसहायता के बौने पन को झेलता हुआ सामाजिक होने की प्रक्रिया में निरन्तर जुड़ा रहता है। अपने आचरण उपदेशात्मक के आग्रह को संजोता नैतिक निष्कर्ष का दृष्टा मात्र बनकर रह गया है। कुशल व्यवहार, चतुर, चालबाज, दूसरों को पीछे धकेलकर आगे बढ़ने की होड़ में जोड़-तोड़ करता मानव।

मन मस्तिष्क में चिन्ताऐं, व्यथाऐं हैं, व्यवसाय, नौकरी, छोकरी, नून तेल लकड़ी की, इच्छाऐं हैं। तमगों के हार, बाँहों के हार, फूलों के हार पहनने की, ऊँचाइयों, बुलंदियों के शिखर पर पहुँचने की, विश्व के रिकार्ड तोड़ने की, तनाव ग्रस्त जीवन से उबरने की, तेजाब, क्रूरता, गंभीरता की गुलामी की जंजीरों को तोड़ने की मानवता के दायरे में रहकर, ढलती उम्र में बढ़ती जीने की इच्छा। भाषा और धर्म पर अटल रहने की। चिन्ता, मानव के मशीनी करण की कम्प्यूटर बने दिलो दिमाक, भावुकता की गहराई से उठते तर्क की चिन्ता, जीवन मूल्यों को बचाये रखने की चिन्ता, किये हुए अपराध दुष्टता का रूप ना लेलें, मानवता पर मनुजता के प्रहारों की चिन्ता। गुनाहों को छुपाने की चिन्ता।

लेकिन ठीक इसके विपरीत सारी व्याधियों, विकृतियों, मैल मनमुटाव से अनभिज भोला बचपन जिसमें कोई अपना, पराया, खोटा, खरा, छोटा बड़ा, ग़रीब, अमीर, विसंगति, विरोध नहीं होता। ना हड़ताल, आन्दोलन, प्रर्दशन कुछ नहीं ना तिकडमबाजी, ना अवसरवादी चारों तरफ आजादी ही आजादी। शाला के छोटे-छोटे साथी रूठना, मनाना, जीतना, हारना, मधुर गीत, संगीत की स्वर लहरी शुभ संस्कृति सा बचपन, निरन्तर कलकल करते झरने सा बचपन, प्रकृति के सन्निकट मंदिर के घंटे सा ध्वनि को झनकृत करता बचपन, मूल्यवान ईंटों से बनी बचपन की नींव पर खड़ा स्वर्ण का महल, स्वर्ण का मंदिर जिसमें विराजित प्रभु का सुखद मूरत और सुख का अनुभव कराती धूपबत्ती की महक। मुश्किलों और मुसीबतों से दूर जिन्दगी के समीव्य बचपन जीवन की प्रथम पाठशाला से रू-ब-रू होता बचपन, माँ की गोद में सुरक्षित, संरक्षित, आरक्षित बचपन, सुबह की सूर्य की गुनगुनी धूप और चमकीली सूर्य की अरूणिम किरणों से उद्भासित बचपन।

कहीं गिल साहब स्वयं आशंकित हो जाते हैं-
”समाज में बहरी हवाऐं
मैदान की खिंची रेखाओं को
पार करने की हिम्मत नहीं कर पाती।“

क्योंकि उन्हें बचपन के दूषित होने का भय हैं। एक बहुत दूर गामी रिश्ता है सोच और बचपन का ”बचपन को चाहिये, वह आने वाले हर विचार को, तर्क के द्वार से गुजरने दे।“ ज़िदगी अपना अर्थ स्वतः ढूँढ लेगी।
स्कूल के प्रांगण में मानव सभ्यता का विकास होता है। उन्हें फ़िक्र है समाज के चक्रव्यूह में जीवन भटक करना रह जायें। बचपन जीवन की राह में जवान होता है और जवानी की किरणें सूरज का तेज भर देती है।

”बचपन उम्र से पहले ही
अपना चोला छोड़ जाता है
यही नादानियाँ गंभीरता का
रूप ले, उम्र से पहले परिवक्व बना
कर जीवन संघर्ष में उतार देती है।“

कहीं-कहीं लेखक उद्दीग्न हो उठते है और ”बचन कहीं तनाव के वातावरण में खोकर ना रह जाये।“
”इसे प्रकृति के गीतों से बहलाते रहो
ढ़लते सूरज की रोशनी से मोहक
बनाते रहो, चाँद की चाँदनी
से व्यार करना सीखो।“

शब्द किसी मानव की निजी संपत्ति नहीं हैं-
”संस्कार हमारे पूर्वजों के
और पलेगी आने वाली
हर बचपन की
अपनी ही पीढ़ियाँ“
बचपन बचाने को जुगत और नज़बीज़ करते लेखक-
”बचपन कहीं मुरझा कर
न रह जाये
माली को चाहिये वो
अपनी खुशियाँ ना ढूँढे
गेंदें की क्यारियों में“

कभी दार्शनिक की तरह विचारों को गहराते हैं तो कभी ”भावुकता और कलाकार के रिश्ते की रीढ़ की हड्डी से कहीं कम नहीं करते हैं।“ जरूरत है भावुकता की गहराई की मानवता रूप तर्क में उतारकर विचारों में बदलने की। मेरा स्कूल मेरा घर है मार्ग दर्शन आत्मा का आत्मा का आधार जीवन का प्रयास हमारे स्कूल का।
बचपन को सम्हालना सवांरना उसे असभ्यता से बचाना, उसे सुदृढ़ और पुष्ट बनाना जीवन का कुशलता पूर्वक संचालन करना, नये-नये आधार स्थापित करना एक दिन में छू मंतर नहीं होते इसके लिये प्रक्रिया से गुजरना होता है और जड़े होती हैं बचपन, और गति विधियों का ध्रुवीकरण है बचपन, जीवन के शाश्वत सत्य की अनहद, अनावृत परम आनन्द की अनुभूति है बचपन, ईश्वर की श्रृद्धा माँ का विश्वास पिता का पौरूष भ्राता का संबल है बचपन, पति के प्यार सा पान अस्मत का रक्षक है बचपन, विशुद्ध साम्य, साकार, आकार, मकार, ऊकार है बचपन, सत्यं शिवम् सुन्दरम् है बचपन, साहित्य और संस्कृति का आधार है बचपन, पूरे समाज का मानव मातृ का दृष्टि क्षेत्र है बचपन, प्रकृति, इन्द्र धनुष और हृदय का स्पंदन है बचपन।

स्थूल परिवेश में लेखक का अनुभव बचपन अपने आप में सचेत, संवेदन, तंतुओं को पकड़ने का सफलतम प्रयास, नयी-नयी चुनौतियों को स्वीकार करता हुआ आगे बढ़ता विनोद पूर्ण बचपन धनीभूत क्षणों का संप्रेक्षण होकर निहित अर्थों और मूल्यों से गुजरता बचपन, जीवन से सीधा साक्षात करने का प्रवृत्ति लेकर साकार होता बचपन। सुन्दर कृति के लिये निश्चय ही बधाई के पात्र है। ईश्वर आपके विचारों में गहराई, और स्थिरता प्रदान करें। आप जिस मुकाम तक पहुँचना चाहते हैं उन्नति के शिखर पर पहुँचें। शुभकामनाओं सहित

साधना शुक्ल
एफ.39/12, परीबाजार
ओल्ड एम.एल.ए. क्वार्त्स
भोपाल (म.प्र.)