बचपन - 10 / हरबिन्दर सिंह गिल
बचपन मनुष्य की अमोल सम्पत्ति है।
इस अमोल सम्पत्ति की खुशियाँ अपार हैं।
यह वह धन है, जिसमें
लालच की मिलावट नहीं होती।
यह वह धन है, जिसमें
सोने-चाँदी के सिक्के नहीं होते
यह तो मानव जिंदगी का
एक पारस है।
”यह बचपन पारस ही रहे
कहीं पत्थर न बन जाए
इसे बहुत संभालने की जरूरत है।“
इस पारस का विकास मानसिक है
समाज के कुकर्मों की मैल न चढ़े
बचपन को स्वच्छ विचारों में पलने दो।
समाज में स्वच्छ वातावरण हो
यह तो सिर्फ काल्पनिक हो सकता है
सच तो यह है, कि बचपन जब
माँ की कोख में जन्म ले रहा होता है,
मानव का खून जो कि
समाज के वातावरण में
प्रदूषित हो चुका है,
उस बचपन को गंदा कर देता है।
आखिर यह क्यों हो रहा है
दिन प्रतिदिन बचपन शब्द की,
स्वयं की चमक भी,
धूमिल होती जा रही है।
याद आता है
श्रवण का जीवन
तो यह यथार्थ हो उठता है
रामायण दुबारा
इस धरती पर नहीं दुहराई जाएगी।
यहाँ तो आने वाला हर कल
उस बचपन को जन्म दे रहा है
जिसमें सुगंध है, सम्प्रदायिकता की
मिठास है, कपट और छल की
और वीरता है देश को विभाजित करने की।
मानवता जो हर माँ की जन्मदाता है
थक गई है, हार गई है
अपने जीवन में मानव को जन्म देते देते
फिर, क्यों न आज के बचपन को साधन बनाए
और मानव, जो इसकी अपनी ही संतान है,
के हाथों शिकार हो जाए अपनी मौत का।