बचपन - 21 / हरबिन्दर सिंह गिल
हाँ बचपन की आम रूप रेखा को
खींचते-खींचते भूल ही गया था,
औरत जब लड़की होती है
उसके बचपन का अपना ही रूप होता है।
रूप जिसकी उदास रेखाएं
उसके जन्म के साथ ही
माँ बाप के चेहरे पर,
यदि हमेशा के लिए नहीं
तो क्षण भर उभर ही आती है।
इसलिये कि माँ-बाप चाहते हुए भी
उसके भविष्य के चित्र को
अपनी रेखाओं से
स्वयं नहीं खींच सकते।
क्योंमिक उसकी भाग्य रेखाएं
किसी और के हाथों में निहित हैं।
जहाँ उसे बचपन का चोला छोड़
हमेशा के लिये
एक नया बसेरा बनाना है।
यह बसेरा कितना ही सुन्दर हो
उस पर शंकाओं के बादलों का
अंधेरा ही रहता है
क्योंकि औरत उस बसेरे की
मात्र एक दीवार है।
सोचकर छत कहीं तूफान में
उड़ न जाए
उसका अपना जीवन हमेशा
अधर में रहता है।
जब लड़की को ज्ञान होता है
वह भी एक दिन औरत बनेगी
और उसका भावी बसेरा भी
पूर्णतः अपना नहीं होगा।
उसका अपना आँगन जिसमें उसका अपना
बचपन पल रहा है,
भी हमेशा अपना नहीं रहेगा।
कैसी बीतती होगी ऐसे बचपन पर
जो एक अनिश्चितता की रूप रेख्शा में
अधर में लटक जवान हो रहा है।
यह एक कड़वा सत्य है
जिसे किसी भी औरत का बचपन
नकार नहीं सकता।
चाहे वह हो आंगन राजमहल का
या हो किसी झोपड़ी का।
हाँ सोचो अगर सोच सको
सोच उस नारी के व्यक्तित्व की
जो अपनी जिंदगी का बचपन
और जवानी दोनों को
विधाता के हाथ में
नहीं देना चाहती।
जिसमें उसका अपना कुछ भी नही रह जाता
न बाबुल का आंगन
जिसमें मिली खुशियां माँ-बाप की
न वह बसेरा
जिसके दीवार की ईटें
दहेज के पत्थर से खरीदी जाती है।