”बचपन कहीं भटक कर न रह जाए
समाज में बनी गलियों के रास्तों पर
संभल कर चलना बहुत आवश्यक है।“
हर गली का रास्ता
उसके अपने घर के आंगन
से शुरू होता है।
इसलिए बहुत जरूरी है
आंगन का वातावरण स्वच्छ हो
ऐसा न हो
समाज की गलियाँ तो हो साफ
और आंगन में हो
बुराई समाज की।
जरूरी नहीं है
कीमती ईटों की दीवारों में ही
स्वच्छ आंगन का वास होता है
झोपड़ पट्टी में खोद कर लाई मिट्टी
और गाय के गोबर से लीपा आंगन
कम साफ नहीं हो सकता।
क्योंकि उसमें संस्कार है, संस्कृति के।
मुझे जब याद आता है
अपने बचपन का आँगन
तो विश्वास नहीं आता
क्या जिंदगी के ग्यारह साल
उन्हीं समाज की गलियों में बिताए थे
जिसे देखकर हर कोई मुख मोड़ ले।
परन्तु नहीं उसमें अपनी ही खुशबू थी
जिसे आज भी याद करता हूँ तो
जीवन महक उठता है।
शायद इसलिए ही जिंदगी को
करीब देखकर जीना सीख लिया है।