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आकार / दिनेश कुमार शुक्ल

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धीरे-धीरे
प्रकट होना शुरू किया उसने...
जैसे आगन्तुक के
आने के पहले ही
आ जाए उसकी छाया

इतना घनघोर था
अनिश्चय
कि तय करना कठिन
कि क्या होगा आकार
रंग कैसा होगा उसका
उम्मीदों के पदार्थ से
बनी आँखों की ज्योति
पहले कभी देखी नहीं वैसी!

पहली बार देखा
काले गुलाब से
किस तरह बनते हैं होठ,
स्फटिक को पिघल कर
काया में ढलते हुए
देखा हमने

छन्द की सघनता में
फड़फड़ाते दो कपोत
तीन नदियों की भँवर
के ऊपर उड़ते हुए
पृथ्वी में डूब रहे थे
बहुत कोमल-कठोर पाँव
हवा के पर्दे फट रहे थे
नक्षत्रों की चिंगारियाँ उड़ रही थीं...

धीरे-धीरे निर्मित होते
उन सुन्दर हाथों ने बढ़ कर
थाम लिये मेरे दोनों हाथ
एक अजन्मी ख़ुशी
भर रही थी दुनिया में
जैसे फागुन में
सरसों में भरता है स्नेह।