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यूँ तो तेरे संग रहा हूँ / हरिवंश प्रभात
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यूँ तो तेरे संग रहा हूँ, एक जनम तक जिया हूँ
मेरे दिल की बात न पूछो, तेरी समझ के बाहर है।
कवि सबकी सुनते आया है
कवि का किसने सुन पाया,
सिंधु बीच रहता हरदम
पर बिंदु ने भी तरसाया,
मोड़ दो नाव किनारे मांझी, मझधारों से खेल न कर
छूट गया जो उसे भुलाना, तेरी समझ के बाहर है।
समय बोध के अभिशापों का
जिसने गरल का पान किया,
तड़पाये जब मोह प्रबलता
बबूलों ने ही छाँव दिया,
संघर्षों के दहके पथ ने, जाने कितने जख़्म दिये हैं,
सहचरी या फिर बोझ बनेगी, तेरी समझ के बाहर है।
आज दहकते मानव के बीच
कविता का रंग लाल हुआ,
साँसों में बारूद भरा
स्वर गर्जन से विकराल हुआ,
पर चिंता की बात नहीं है, नहीं निराशा करने की
मुट्ठी तनी हुई क्यों सबकी, तेरी समझ के बाहर है।