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प्यासा पनघट बाट जोहता / हरिवंश प्रभात

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प्यासा पनघट बाट जोहता और उसे मत तरसाना,
ओ आषाढ़ के पहले बादल, झूम-झूम कर बरसाना।

तेरे बिना बेहाल डाल पर
बैठी चिड़ियों की टोली
भूल गयी संगत करना
बागों की कलियों की बोली,
पेड़ों पे सूखे पत्तों पर फिर से कोपल आयेंगे
नयी आशाएं, नये सृजन के भाव जगाकर बिखराना।

नभ पर काले मेघ देख
होठों पर प्यास चिपक जाती
तन में मन में आंचल बनकर
ठंडी हवा लिपट जाती,
गायब होते गये कहाँ विश्वासों के भंवरे उड़कर,
फिर परियों-सी बदली को पड़ता है लाकर समझना।

सावन के पहले चाहा
प्रियतम का रूप सजाने को
उजले मोती बूँदों की
माला प्रिय को पहनाने को
मानों कहा नहाकर अपनी जुल्फें शीघ्र सुखा लो तुम
पता नहीं कब कौन दिशा से सावन का हो उतर आना।

तेरा नहीं मुखौटा बादल
तू स्वच्छंद विचरता है
अंधेरों को रौशन कर
तू पल-पल नया निखरता है,
निर्मोही की याद सदा तेरी ही ध्वनि से होती है।
नव जीवन, नव यौवन तेरा, सुधा का गागर ढरकाना।