भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नव पल्लव का आभूषण / हरिवंश प्रभात

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:50, 16 मई 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिवंश प्रभात |अनुवादक= |संग्रह=ग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नव पल्लव का आभूषण, धरती को भाया है,
ऐसा लगता प्रिय बसंत का, मौसम आया है।

आम्रवृक्ष पर मंजरियाँ हैं, खिला पलाश है वन में
रस घोले कोयल अमराई, चंचलता चितवन में,
पंखुड़ियों के सीने पर, भंवरों ने गीत रचाया है।

खुशबू लेकर हवा चली, सुवासित करने घर-घर,
बागों की हर डाली से, मादकता डगर-डगर पर,
भँवरों ने कलियों का घूँघट पट सरकाया है।

झील-सी गहरी आँखों में, मस्ती का आलम छाया
सतरंगी सपनों में डूबा, परदेशी याद आया,
सुध-बुध में कोई खोया, कोई बौराया है।

नई उमर की नई गंध है, नैन लगे रतनारे
धरती से अंबर तक फैले, घने केश कजरारे,
सुमन सेज का पता किसने तितली बतलाया है।

चाहों की चूनर ओढ़े, आती है रात सुहानी
उलझे मन के तार जुड़े हैं, जो थी प्रीत पुरानी,
इन्द्रधनुषी आंचल अलसाये बिखराया है।