भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अंतर / कुँअर बेचैन

Kavita Kosh से
198.190.230.62 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 19:56, 4 नवम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुँअर बेचैन }} मीठापन जो लाया था मैं गाँव से कुछ ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मीठापन जो लाया था मैं गाँव से

कुछ दिन शहर रहा

अब कड़वी ककड़ी है।


तब तो नंगे पाँव धूप में ठंडे थे

अब जूतों में रहकर भी जल जाते हैं

तब आया करती थी महक पसीने से

आज इत्र भी कपड़ों को छल जाते हैं

मुक्त हँसी जो लाया था मैं गाँव से

अब अनाम जंजीरों ने

आ जकड़ी है।


तालाबों में झाँक,सँवर जाते थे हम

अब दर्पण भी हमको नहीं सजा पाते

हाथों में लेकर जो फूल चले थे हम

शहरों में आते ही बने बहीखाते

नन्हा तिल जो लाया था मैं गाँव से

चेहरे पर अब

जाल-पूरती मकड़ी है।


तब गाली भी लोकगीत-सी लगती थी

अब यक़ीन भी धोखेबाज़ नज़र आया

तब तो घूँघट तक का मौन समझते थे

अब न शोर भी अपना अर्थ बता पाया

सिंह-गर्जना लाया था मैं गाँव से

अब वह केवल

पात-चबाती बकरी है।